आँख चुराकर ,मुहं छिपाकर ,
मुझसे थोडा बच-बचकर ,
आस-पास के बच्चे देखें ,
मेरी बगिया को ललचाकर .
कुर्सी पर जो बैठकर देखूं ,
घर से आगे बढ़ जाएँ ,
टहल-टहल जो छिपूं कभी मैं ,
बगिया के द्वारे आ जाएँ .
मैं भी पक्की हूँ शरारती ,
लुका-छिपी तो खेलूंगी ,
फूल खिले जो हैं बगिया में ,
उनको आज बचा लूंगी .
थोडा सा मैं छिपकर बैठी ,
बच्चा एक था ऊपर आया ,
बगिया के बाहर से उसने ,
फूल के ऊपर हाथ बढाया .
दौड़ी उस पर तेज़ भागकर ,
बच्चा नहीं पकड़ में आया ,
दूर से जाकर औरों से मिल ,
उसने मुझको खूब चिढाया .
गुस्सा आया उस पर मुझको ,
अपनी हार से शर्मिंदा थी ,
पकडूँगी पर इन्हें कभी तो ,
आस मेरी अब भी जिंदा थी .
घर के अन्दर जाने का फिर,
मैंने खूब था स्वांग रचा,
जिस में फंसकर एक शिकारी ,
बच्चा लेने लगा मज़ा .
खूब उछलकर,कूद फांदकर ,
बगिया में था धमक गया ,
तभी मेरे हाथों में फंसकर ,
उसका हाथ था अटक गया .
रोना शुरू हुआ बच्चे का ,
मम्मी-मम्मी लगा चीखने ,
देख के उसका रोना धोना ,
मेरा मन भी लगा पिघलने .
थोडा सा समझाया उसको ,
फूलों से भी मिलवाया ,
नहीं करेगा काम कभी ये ,
ऐसा प्रण भी दिलवाया .
खुश थी अपनी विजय देखकर ,
फूलों को था बचा लिया ,
माथा पकड़ा अगले दिन तब ,
बच्चा जब फिर वहीँ आ लिया .
शालिनी कौशिक
तुकांत कविता-"मौलिक व अप्रकाशित"
5 टिप्पणियां:
सुन्दर प्रस्तुति | शुभकामनायें . हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
BHARTIY NARI
PLEASE VISIT .
प्रशंसनीय कविता
बच्चा
gulab37blog
पेड़ के झुरमुट से
झांकता हुआ
बच्चा |
चाँद सा प्रतीत होता है
जब वह
बादलों की ओट से
झांकता है |
कभी–
हवा के झोंके से
बादल चाँद को
ढक लेते हैं
कभी–
पेड़ों की पत्तियां
बच्चे के चहरे को |
पर !
एक चीज दोनों में
‘कमान’ है
चहरे का ढाका जाना !
क्या ?
यूं ही
बच्चा उठाता रहेगा
बस्ते का बोझ
छुपता रहेगा
विद्यालय जाने से
बचने के लिए ?
क्या ?
यूं ही
उसे प्रतिबंधित किया जायेगा
खेलने से
परीक्षा का डर दिखाकर ?
क्या ? यूं ही
वह सोचता रहेगा
कि–
काश !
मुझे बच्चा रहने दिया जाये |
क्यों ?
मुझे लोग
बड़ा बनाने पर तुले हैं ?
क्या ?
मैं
रह न पाउँगा
बच्चा ?
पेड़ के झुरमुट से
झांकता हुआ बच्चा –
चाँद – सा प्रतीत होता है
जब वह
बादलों की ओट से
झांकता है !!
द्वारा — गुलाब चन्द जैसल
नोट: सारे अधिकार कवि के अधीन हैं |
बच्चा
Posted on मई 25, 2010 by gulab37blog
पेड़ के झुरमुट से
झांकता हुआ
बच्चा |
चाँद सा प्रतीत होता है
जब वह
बादलों की ओट से
झांकता है |
कभी–
हवा के झोंके से
बादल चाँद को
ढक लेते हैं
कभी–
पेड़ों की पत्तियां
बच्चे के चहरे को |
पर !
एक चीज दोनों में
‘कमान’ है
चहरे का ढाका जाना !
क्या ?
यूं ही
बच्चा उठाता रहेगा
बस्ते का बोझ
छुपता रहेगा
विद्यालय जाने से
बचने के लिए ?
क्या ?
यूं ही
उसे प्रतिबंधित किया जायेगा
खेलने से
परीक्षा का डर दिखाकर ?
क्या ? यूं ही
वह सोचता रहेगा
कि–
काश !
मुझे बच्चा रहने दिया जाये |
क्यों ?
मुझे लोग
बड़ा बनाने पर तुले हैं ?
क्या ?
मैं
रह न पाउँगा
बच्चा ?
पेड़ के झुरमुट से
झांकता हुआ बच्चा –
चाँद – सा प्रतीत होता है
जब वह
बादलों की ओट से
झांकता है !!
द्वारा — गुलाब चन्द जैसल
नोट: सारे अधिकार कवि के अधीन हैं |
सुन्दर प्रस्तुति... शुभकामनायें
प्यारी बाल रचना ...
भ्रमर ५
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